Famous 10 plus मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं pdf

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मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं pdf

मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं 

राम, तुम्हें यह देश न भूले

राम, तुम्हें यह देश न भूले,

धाम-धरा-धन जाय भले ही,

यह अपना उद्देश्य न भूले।

निज भाषा, निज भाव न भूले,

निज भूषा, निज वेश न भूले।

प्रभो, तुम्हें भी सिन्धु पार से

सीता का सन्देश न भूले।

नूतन वर्ष

नूतन वर्ष !

आते हो? स्वागत, आओ;

नूतन हर्ष,

नूतन आशाएं लाओ ।

हमें खिलाकर खिल जाओ ।।

तुम गत वर्ष !

जाते हो? रोकें कैसे?

हा हतवर्स !

जाओ, नैश स्वप्न जैसे ।

निश्वासों में मिल जाओ ।।

जाने को नव वर्ष चला है,

और न आने को गत वर्ष ।

भुक्ति-मुक्ति के लिए भला है,

आवागमनशील संघर्ष ।।

होली

जो कुछ होनी थी, सब होली!

धूल उड़ी या रंग उड़ा है,

हाथ रही अब कोरी झोली।

आँखों में सरसों फूली है,

सजी टेसुओं की है टोली।

पीली पड़ी अपत, भारत-भू,

फिर भी नहीं तनिक तू डोली!

मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं

अरे भारत! उठ, आँखें खोल,

उड़कर यंत्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल!

अवसर तेरे लिए खड़ा है,

फिर भी तू चुपचाप पड़ा है।

तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है,

पल पल है अनमोल।

अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

बहुत हुआ अब क्या होना है,

रहा सहा भी क्या खोना है?

तेरी मिट्टी में सोना है,

तू अपने को तोल।

अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

दिखला कर भी अपनी माया,

अब तक जो न जगत ने पाया;

देकर वही भाव मन भाया,

जीवन की जय बोल।

अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

तेरी ऐसी वसुन्धरा है-

जिस पर स्वयं स्वर्ग उतरा है।

अब भी भावुक भाव भरा है,

उठे कर्म-कल्लोल।

अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

बन्धन

सखे, मेरे बन्धन मत खोल,

आप बँधा हूँ आप खुलूँ मैं,

तू न बीच में बोल।

जूझूँगा, जीवन अनन्त है,

साक्षी बन कर देख,

और खींचता जा तू मेरे

जन्म-कर्म की रेख।

सिद्धि का है साधन ही मोल,

सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

खोले-मूँदे प्रकृति पलक निज,

फिर एक दिन फिर रात,

परमपुरुष, तू परख हमारे

घात और प्रतिघात।

उन्हें निज दृष्टि-तुला पर तोल,

सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

कोटि कोटि तर्कों के भीतर

पैठी तैरी युक्ति,

कोटि-कोटि बन्धन-परिवेष्टित

बैठी मेरी मुक्ति,

भुक्ति से भिन्न, अकम्प, अडोल,

सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

खींचे भुक्ति पटान्त पकड़ कर

मुक्ति करे संकेत,

इधर उधर आऊँ जाऊँ मैं

पर हूँ सजग सचेत।

हृदय है क्या अच्छा हिण्डोल,

सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

तेरी पृथ्वी की प्रदक्षिणा

देख रहे रवि सोम,

वह अचला है करे भले ही

गर्जन तर्जन व्योम।

न भय से, लीला से हूँ लोल,

सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

ऊबेगा जब तक तरा जा

देख देख यह खेल,

हो जावेगा तब तक मेरी

भुक्ति-मुक्ति का मेल।

मिलेंगे हाँ, भूगोल-खगोल,

सखे, मेरे बन्धन मत खोल।।

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